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चुनावी पत्रकारिता Electoral journalism



 जमीनी स्तर की पत्रकारिता बिक चुकी है, 
दिख चुकी है पहचान इन पत्रकारों की 
चाटुकार है यह नेताओं के, 
वैनिटी वैन में होगा सफर सुहाना, 
चुनाव तो है सिर्फ एक बहाना, असल में है इन्हें घुमाना

देशव्यापी मुद्दों की बहस में उलझे रहते हैं, 
जमीनी स्तर की दुर्दशा से यह दूर रहते हैं 
जानते हैं सभी को, पर अंजाना सा सवाल पूछते हैं 
उस सवाल में भी यह सिर्फ हालचाल पूछते हैं 

गरीब के वोट को यह खरीदते हैं, 
चुनावी रणनीति में अपनी जीत की दावेदारी पक्की करते हैं, 
5 साल बदहाल, गरीब पूछे फिर सवाल 
नेताओं को है यही मलाल, उड़ेगा फिर से रंग लाल 

जातीय हिंसा ये धर्म लड़ायें, जीत के लिए रणनीति बनाएं,
रणभूमि में लड़ने को उतारू होंगे, 
दंगों की आग में दुश्मन भी साफ होंगे 
दुश्मन भी वार न करें ऐसा वार करते हैं, 
ये मानसिक रूप से बीमार करते हैं 

बेरोजगारी की मार से मरता है युवा, 
बातों में सच्चाई फिर भी मुद्दा है धुआं 
पत्रकारिता बिक चुकी है, सवाल करना भूल चुकी है 
चुनाव के समय नेताओं से सवाल करते हैं 
चुनाव से पहले वही नेता गरीब को बदहाल करते हैं 

यह सिर्फ आपराधिक छवि सुधारने आते हैं, 
कुछ तरक्की इनकी भी हो जाए, बस इतना ही यह चाहते हैं,
समय की मांग के साथ पत्रकारिता बदलनी होगी, 
जनता के मुद्दों से हर बिसात चलनी होगी 
पत्रकारिता में फिर बदलाव की एक नई चाल चली होगी, 

 आधारहीन विषयों को चुनकर जनता का मनोरंजन करने के लिए आजकल पत्रकारिता जगत में नए नए शोध किए जा रहे हैं,  एक नाम और एक विषय को इतना ज्यादा टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है कि जिससे आज का इंसान ऊब चुका है,  वह चाहता है कि इस पत्रकारिता में कुछ बदलाव हो और दोनों तरफ के पक्ष और विपक्ष की बातों को वह गौर से सुन सके, 
 विपक्ष को खत्म कर देना तबाह कर देना यह सिर्फ और सिर्फ चुनावी पत्रकारिता की ही ताकत है,  पर उन्हें नहीं पता कि चुनाव के समय मतदाता अपने विचारों से सहमत होकर ही किसी व्यक्ति विशेष को या उसकी पार्टी को चुनता है, 
 हालांकि कई सारी भीड़ को एक तरह से अपनी और आकर्षित करने के लिए इनके द्वारा रचा गया एक मायाजाल,  जहां उन विषयों को ज्यादा गंभीरता से लिया जाता है जिन विषयों से आम आदमी के अंदर देशभक्ति की भावना जगी रहे,  पत्रकारों के द्वारा की गई पत्रकारिता में विषयहीन विषयों को ही उठाना एक तरह से बतलाता है की उनके निशाने पर उनके आम दर्शक हैं, 
 कई गंभीर विषयों को हल्के में लेना या फिर दिखाना ही नहीं और कई सारे ऐसे विषयों को मुद्दा बनाकर उठाना है जिनका जमीनी स्तर से कोई लेना देना ही नहीं,  अगर हम पुरानी खबरों का मूल्यांकन करें तो हमें पता चल गई कई सारे पत्रकारों के द्वारा चलाई गई खबरों में विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है,  और जिन लोगों ने इन खबरों के मूल्यांकन से अपने विचारों को तैयार किया उन लोगों ने भी एक तरह से अपने आप की मानसिकता को बर्बाद करने में सार्थक भूमिका निभाई है, 

 चुनाव में पत्रकारों का एक नया रंग रूप नजर आता है यह दलित, अगाड़ी, पिछड़ी जाति,  अल्पसंख्यक वर्ग,  ब्राह्मण वर्ग,  इनको टुकड़ों में बांटकर वोट बैंक तैयार करते हैं,  आखिर एक स्वतंत्र देश में इस तरह की मानसिकता क्यों और आखिर किस लिए उपयोग की जाती है,  क्या पढ़ा-लिखा वर्ग इन चीजों से अवगत है?
 जब तक हमें एक वोटर के नजरिए से ही देखा जाएगा तब तक हमें पत्रकारों और किसी राजनीतिक पार्टी के द्वारा चुनाव के दौरान ही पूछा जाएगा,  उस रोजाना दौड़ती भागती हुई भीड़ का हिस्सा हम भी हैं जो कि अपनी मानसिकता अपनी विचारधारा से ज्यादा दूसरों की विचारधारा पर निर्भर है और इसी वजह से हम कई बार चुनाव में यह ध्यान नहीं देते कि आखिर उम्मीदवार की छवि कैसी है, 

 खुद सोचें खुद विचारे, किसी भी राजनीतिक पार्टी को वोट देने से पहले यह जांच लें कि आखिर पिछले 5 सालों में आपको कुछ जमीनी स्तर पर बदलाव नजर आया भी या नहीं या सिर्फ आपकी सिर्फ मानसिकता ही बदली है, 

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