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बदलता हुआ बचपन Changing childhood

 




बदलती सदी सा बदल रहा हूं मैं, 
ढलते सूरज सा ढल रहा हूं मैं, 
अंदर ही अंदर बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, 
जो बचपन था अंदर, वह यादें अब खो चुकी हैं, 

धूल से भरी हुई मिट्टी, अब वह नहीं रही 
जिस मिट्टी से खेले थे हम, बचपन में कहीं 
अब वह मिट्टी कहीं सख्त बन चुकी है, 
जो चुभती है आज पैरों में, वह मिट्टी अब वो नहीं रही है 

समय के साथ इंसान ढल जाता है, 
खुद वक्त वहीं रहता है, वक्त बदलने वाला खुद बदल जाता है
सोच, सपने देखे थे जो बचपन में, क्या सच हो पाए ?  
झूठ की दुनिया में जी रहे थे हम, 
उम्र एवं वक्त के साथ यह धीरे-धीरे समझ में आए, 

आईने में जब भी खुद को देखता हूं, सोचता हूं, 
क्या मैं ढल चुका हूं, या संभल चुका हूं,
अपने आप को क्या मैं बदल चुका हूं, 
मैं अतीत की परछाई को आज भी धुंधला समझता हूं, 
बचपन की गलतियों को आज भी, हमेशा याद रखता हूं 

सूनी हो चुकी है वो गलियां वो मैदान, 
जहां रहते थे हम, रोज नए खेलों से अनजान 
उस बीते समय को वापस तो नहीं ला सकता हूं 
पर उस बदलते समय में, वर्तमान में मैं जा सकता हूं 

बुढ़ापे में वही बचपना याद आता रहेगा, 
अंतिम क्षणों में भी बचपन की यादों से मन ताजा रहेगा 
वक्त ठहरता नहीं पर हम कभी ना कभी ठहरेंगे 
वक्त को अलविदा कहने से पहले, 
अपने बचपन को अलविदा कहेंगे 

मैं मेरा बचपन, यादों को समेटे हुए मेरा एक छोटा सा मन !!

 इस बदलते हुए समय इस बदलते हुए  दशकों से मैं यही कहना चाहूंगा, आने वाले दशकों में भी हर नए तरह के खेलों से बच्चे अपना मनोरंजन करते रहेंगे, पर जो दशक हमने देखे हैं,   1990 से लेकर 2000, 2000 से लेकर 2010 और 2010 से लेकर 2020 तक  इस दशक में  हमने कई तरह के नए खेल तैयार किए थे,   जिसे हम सड़कों पर मिट्टी में या फिर कहीं भी खेल सकते थे, 

 आजकल और आने वाली पीढ़ियों में बच्चों के अंदर यह स्वभाव नजर नहीं आएगा,  वह अपने आप को अकेला महसूस करेंगे और तकनीक में इतना ज्यादा निर्भर हो जाएंगे की उनके आचरण और उनके स्वभाव में भी बदलाव आना स्वभाविक है,   मानव अपने आप को जितना ज्यादा विकसित करता रहेगा उतना ज्यादा नुकसानदायक उसके आने वाले भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी होगा,  



 यह फायदेमंद से ज्यादा नुकसानदायक साबित हो सकता है,  फिर भी इस पर इस प्रतिस्पर्धा भरे हुए विश्व में और बदलती हुई तकनीक में कोई भी नहीं चाहेगा कि उसकी आने वाली पीढ़ियां भविष्य में औरों से पिछड़ जाए,  हमें सोचना होगा और समझना होगा कि आखिर हमारे प्रतिस्पर्धा भरे जीवन का मूल सिद्धांत के बीज अगर हम उन छोटे बच्चों के मन में भरना शुरू कर दें  तो वे भी इस प्रतिस्पर्धा की भाग दौड़ में  अपने स्वभाव को निरंतरता बदलते चले जाएंगे, 

 विश्व की बढ़ती हुई जनसंख्या कम होते हुए प्राकृतिक संसाधनों और भविष्य में होने वाली प्रतिस्पर्धा में कई ऐसी प्रतिस्पर्धा भी मौजूद होंगी जिसमें इंसान एक दूसरे के सर्वनाश की कामना रोज करेगा, 
 यह चीजें आने वाले दशकों में भारी पड़ने वाली है,  हम चाहे निरंतरता अपने आप को  विकसित करते चले जाएं पर हम इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं कि हम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किस प्रकार और कितनी तेजी से किए जा रहे हैं, 

 बचपन की यादों को समेटे हुए एक बचपन जोकि आज के बदलते स्वरूप में बहुत सारे सवाल  समेटे हुए हैं, प्रतिस्पर्धा में कई सारे मिट गए हैं कई सारे जीवित हो उठे, 
 जो उद्देश्य मानकर प्रतिस्पर्धा करने निकले थे, वे आज विश्व को कई तरह से बदल चुके हैं, 

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