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शरीर और आत्मा का जन्म Birth of body and soul


"गीता में भी कहा गया है कि आत्मा न कभी जन्म लेती है और न मरती है, न उसका शरीर के साथ जन्म होता है और न ही शरीर के मरने पर वह मरती है। आत्मा अमर है, अमित है और समय से परे है" 
जो व्यक्ति इन चीजों को नहीं समझ पाता है, वह व्यक्ति ही दूसरे व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, मनुष्य अपना क्रोध एक दूसरे के शरीर पर प्रहार करके ही उतारता है, और यह तभी होता है जब वह व्यक्ति अपने क्रोध की अंतिम सीमा में होता है, परंतु वह यह नहीं जानता उसके द्वारा उसका क्रोध का ज्वालामुखी जो दूसरे के ऊपर फूटा है, उसका प्रभाव उसी के ऊपर सबसे ज्यादा होगा,  

अगर वह व्यक्ति यह समझने लग जाए कि उसने जिस व्यक्ति के शरीर पर अपना पूरा क्रोध निकाला है, दरअसल उसके विचार उसकी भावनाएं और उसकी आत्मा अभी भी मौजूद है, तो वह व्यक्ति इस जीवन के महत्व को समझने लगेगा, और महसूस करेगा कि यह जीवन में सिर्फ शरीर की काया बदलती रहती है जो आत्मा है वह अमर है, 
आध्यात्म ऐसा मार्ग है जिसमें चलकर मनुष्य अपनी हर वह आकांक्षाओं जरूरतों और सवालों के जवाब जान सकता है जिसकी वह अपेक्षा करता है, आत्मा का परमात्मा से मिलन ही कहलाता है असली अध्यात्म,

क्रोध, लालच, कपट, घृणा ऐसी कई भावनाएं जो मनुष्य अपने जीवन चक्र के दौरान जाहिर करता है, यह उसके नियंत्रण के बाहर है, और क्रोध सबसे अधिक इसमें ताकतवर है, जब मनुष्य अपने मानसिक संतुलन के नियंत्रण से बाहर हो जाता है, तब उसका क्रोध उसकी सारी सीमाओं सुपर उसे वह करने के लिए उकसाता है, जिसे वह कहीं ना कहीं दूसरों को करते हुए देखता है, अर्थात उसे दंडित करना, जब मनुष्य दूसरे मनुष्यों की क्रोध की सीमाओं को देखता है तो उनसे सीखता है और यह समझता है कि खुद से ऐसा व्यवहार मनुष्य सामान्य तौर पर करता होगा, और वह मनुष्य खुद ही दूसरे के लिए अपने क्रोध की सीमा से निर्मित एक दंड को चुन लेता है, और उसी रूप में उसे सजा देता है,

जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को इस तरह से दंडित करता है तो उसे सिर्फ यही नजर आता है कि इस दंड के बाद उसको खुशी मिलेगी, परंतु उसका दंड दूसरे व्यक्ति का शरीर ही जेल रहा होता है, 

हमें बचपन से लेकर अब तक सिर्फ यही बताया जाता है कि मानव शरीर में कितनी हड्डियां होती हैं मांसपेशियां किस चीज से बनी होती है, परंतु हम अपने पूर्ण जीवन में यह समझ नहीं पाते की जीवन का असली सिद्धांत क्या है, क्या मैं अमर हूं?क्या मेरे शब्द अमर रहेंगे?
इस दुनिया में कुछ भी अमर नहीं है फिर भी मानव अपने आप को इतना ताकतवर मान बैठा है कि वह खुद की तुलना भगवान से करने लगा है, हम विज्ञान में कितना भी आगे निकल जाए हम वापस अपनी इतिहास में दोबारा चले जाएंगे, और हर बार दोबारा वहीं से शुरुआत करेंगे और ऐसा क्यों होगा क्योंकि मानव का क्रोध लालच द्वेष घृणा यह सारी की सारी मानसिकता एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का दुश्मन बनाती है,

देश बटे पड़े हैं, धर्म के नाम से जाति के नाम से, एक दूसरे को इंसान नहीं मानता कोई सबसे पहले वह धर्म की नजर से देखता है, ऐसी मानसिकता हजारों वर्षों से चली आ रही है, अगर मान लीजिए इस पूरी पृथ्वी में सिर्फ एक ही धर्म मौजूद होता तब भी लोगों के अंदर लालच और ऐसी अनेक भावना पैदा होती रहती, और यही कारण है कि मनुष्य कभी भी अपने आप को उतना प्रगतिशील नहीं पहुंचा पाएगा जहां तक भगवान पहुंच चुके हैं, 

क्रोध की सीमाएं निर्धारित करना मनुष्य का काम है, अगर मनुष्य अपने क्रोध की सीमा निर्धारित नहीं करेगा तो वह सीमाएं इतनी ज्यादा ताकतवर हो जाएगी की मनुष्य को अपने किए गए कार्यों पर भी पछतावा नहीं होगा, जिंदा व्यक्ति को लाश में तब्दील कर देना, और फिर पछतावा ना होना बल्कि अपने किए गए कार्यों का गुणगान करना, इसका मतलब यह है कि जो व्यक्ति ऐसे काम कर रहा है उसकी विचारधारा और सोच को बाकी लोग भी अपना रहे हैं और वे सोच रहे हैं कि अपने क्रोध को शांत करने के लिए ऐसे निर्णय सही रहेंगे, 

का अधिकांश हिस्सा उन चीजों को समझने में लगा देते हैं जो कि व्यर्थ है, जिसका हमारे जीवन और हमारे भविष्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, और इसी तरह से मानव कई तरह के विचार अपने मन में समेट लेता है,  "मैं ना भविष्य था ना ही में वर्तमान हूं मैं हर बार जन्म लेने वाली सिर्फ एक आत्मा हूं "
जब तक सूरज के अंदर उसकी ऊर्जा मौजूद है, जब तक पृथ्वी पर सूर्य की गर्माहट और चांद की शीतलता मौजूद है, जब तक इस धरती पर हर जीव, जंतु, मानव जीवित हैं, आत्मा तब तक मौजूद है, 

बगैर आत्मा के शरीर कुछ नहीं 
बगैर आत्मा के विचार कुछ नहीं,
आत्मा है तो संसार का जीवन चक्र जिंदा है,
जहां आत्मा नहीं वहां परमात्मा भी नहीं,

जो समझते हैं जानते हैं, आत्मा पहचानते हैं 
इंसानी शरीर को आत्मा का एक वाहन मानते हैं,
शरीर कुछ नहीं सिर्फ एक दिखावा है, 
आत्मा के लिए सिर्फ एक पहनावा है,  

धन्यवाद 

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