मेरी पहचान दूसरों से अलग क्यों है
पहचान है इसीलिए सोच भी अलग है
में डरता हूँ , झुकता हूँ , भयभीत होता हूँ
पर चेहरे पे कभी हावी नहीं होने देता हूँ
कहता हूँ खुद से कभी ज़िन्दगी के मजे भी लेले
यूँ उखड़ा उखड़ा सा क्यों रहता है मेरा दिल हर बार
कभी किसी को अपना मान उससे अपने दिल की बात कह ले
राज़ दबे हुए है इस चेहरे के पीछे हज़ार
पर्दे के पीछे है कोई और , और झलकता है कोई और
में समझ नहीं पाता इसीलिए असमंजस में रहता हूँ
आंसू ना हो पर किसी से नहीं कहता हूँ
पहचान की इस भागदौड़ में कोई हमें भूल सा गया
हमें याद था वो पर अनजाना सा रह गया
में खुद से कहता , मुझमें क्या कमी थी
भीतरघात करने के लिए बहुत सी बुराईयां बसी थी
दूसरों के सुख में अपनों के दुख मैं , नहीं था मैं
वो बस दर्पण देखकर ही पहचानते है
जिन्हे कभी कुछ कहता था मैं
गलती बस इतनी है मुझे पहचान नहीं सका कोई
साथ था में फिर भी ना जान सका कोई
में सच हूँ सच का साथी हूँ , झूठ बोलने से कतराऊं
युद्धिष्ठिर नहीं हूँ में , जो पूर्ण सत्यवादी कहलाऊँ
कमियां है मुझमे , में उन्हे पहचानता भी हूँ
कही झलक ना जाए किसी को , इसीलिए खुद से अनजान हूँ
ये कोई कविता नहीं जो बनाये पहचान मेरी
मुझमे इतनी काबिलियत नहीं ये कविता हो शान मेरी
सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम ये है शब्दों का जाल
जिसमें फंसकर एक कविता हो जाए मालामाल।
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